कुछ कशिश है पत्थरों में जो मुझे अपनी ओर खींचती है और अपनी कहानी मुझे सुनाती है और मुझे उसकी कहानी सुनाने पर मजबूर करती है।
अगर हर एक पत्थर जुबां बन जाए तो ना जाने हमें क्या क्या खूबसूरत पल, दरदनाक वाक़िये और रूमानी क़िस्से सुन ने को मिले |
मैं ने जब दिल्ली वापस आने का फैसला लिया तो उस में बहुत बड़ा हाथ था मेरी चाहत अपनी विरासत के लिये।
स्कूल के दिनों से शौक़ था पुराणी इमारतें देखने का उन में घूम ने का और यह सोचना के यहाँ क्या क्या गुज़र गया होगा।
बचपन लखनऊ में गुज़रा और रेजीडेंसी घर के बहुत क़रीब थी तो अक्सर जाना होता ट वहाँ १८५७ के मंज़र अक्सर दिल ओ दिमाग़ पे छा जाते थे , और ख्याल आते थे कि उन् दिनों अंग्रेज़ों पर और हिन्दुस्तानियों पर क्या गुज़री हो गी.
ऐसी ही कहानिया सुन ने के लिए मैं आज कल दिल्ली कि ख़ाक छान टी हूँ और कभी ख़ुशी कभी ग़म के आंसू बहती हूँ ।
मैंने कई मुल्कों कि सैर की है और वहाँ के मक़बरे, कलीसा और महल केख़ज़ानों से आँखें सेर की हैं । कोई जवाब नहीं है यूरोप के कालेसों का । मक़बरों में भी किस शान से लोग सोते हैँ : और एक हम हैं ना खुद चैन की नींद सोते हैं ना मरे हुवों को सोने देते हैं ।
आज काफी मक़बरों के चारों तरफ घर बन गए है, मस्जिदें वीरान पड़ी हैं और उन में नमाज़ तो दूर कूड़े का ढेर हैं |
ऐसे ही एक मस्जिद मुझे दिल्ली ले पहाड़गंज में मिली|
यह नबी करीम पुलिस थाणे के सामने है|
ढाँचे को देख कर आप यह बिलकुल नहीं कह सकते के यहाँ कभी खुदा का नाम भी लिया गया होगा।
इस मस्जिद कि खासियत यह थी के यह एक वाहिद मस्जिद है जो कम अस कम मैंने देखी है जो ‘यू-शेप्ड” है|
इसको किस्ने बनवाया और क्यूँ इस तरतीब से बनवाया नहीं मिला मुझे किसी भी पुरानी तारिख कि किताब मे| क़दम शरीफ कि दरगाह से नज़दीकी कि वजह से मुझे लगता है यह इलाक़ा काफी मशूर रहा होगा और यहाँ ज़ायरीन काफी आते होंगे| कुछ लोगो़ का मान ना है कि यह िफरोज़ शाह के मशहूर वज़ीर ितिलगाना िक बनानाई हुई ७ मस्िजदो़़ मे़ से एक है लेिकन इसका कोई ठोस सबूत नही िमलता । उनकी बनवाई गई मस्िजद मे़ बेगमपुर और िखणकी बहुत मशहू और मारूफ है़। अगर यह भी उनकी । ७ मस्िजदो़ मे से एक होती तो इसका ज़िक् ज़रूर मिलता।यह मस्जिद शायद लोदी बादशाहों के ज़माने कि है।
सदियों की तारीक खंडर में
जब आवाज़ लगाता है
ला महदूद खला के लैब पर
खामोशी बन जाता है
अंधेरों में खंडर सोता पड़ा है | अबाबीलों के लश्कर जागते है |
बीच के हिस्से मैं मलबा मिटटी और गन्दगी हमारी लापरवाही कि गवाही देती है |
दर ओ दीवार हसरत से नज़र डालते हैं | कभी हमने भी देखि है शान ए करीमी |
कभी यहाँ झुकते थे सर खुदा के सामने
आज झुकते हैं शर्म से अपनी लापरवाही पर
जब कहीं सर छुपाने को घर ना मिला तो खुदा का घर ही काम आया |
अब इसका दायी तरफ का हिस्सा तो काफी हद्द तक गिर गया है और बायीं तरफ के हिस्से पर किसी का क़ब्ज़ा है। बीच के हिस्से मैं मलबा मिटटी और गन्दगी हमारी लापरवाही कि गवाही देती है
यह शायद कभी इस मस्जिद में आने का एक रास्ता था अब एक साइकिल कि दूकान है
जहाँ एक तरफ लाखों का हुजूम हमारी इन इमारतों को देखने के लिए दुनिया भर से आता है वहीँ दूसरी तरफ हम खुद इनकी हिफाज़त नहीं करते।
आखिर कार अपनी विरासत कि हिफाज़त करना हमारा काम है|
कुछ काम तमाम किया हमारी लालच, लाचारी ने और कुछ १९४७ के बाद इमारतों की ला वारिसी ने अंजाम दिया|
Can you imagine my delight when last week on my visit to this area I saw a wonderful sight.
At first I didn’t realise it was this same place but Syed Mohamamd Qasim who was with me kept insisting it was.
To my surprise I realised it was.
It used to be an Imambara as per the board there and there are references to imambara which was converted intoa hospital for infectious diseases by the British.
Was a cycle shop the last time I saw it. Now a proper gateway
see the contrast!
one thing remains constant and that is illegal occupation. Though the occupant has changed. This laundryman came here 2 years ago when the monument was restored. The old one has gone to some other monument
But the heart was gladdened to see that when we want we can restore our heritage.